Natasha

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राजा की रानी

चाय-बिस्कुट लेकर और उनके विवाहित जीवन की लाखों घटनाओं का विस्तृत इतिहास सुनकर जब मैं मकान से बाहर हुआ तब दिन अधिक बाकी नहीं था घर लौट जाने की इच्छा नहीं हुई। दिन के अन्त में सब लोग अपना-अपना काम-काज खत्म करके डेरे में लौट आते हैं- दादा ठाकुर का होटल उस समय तरह-तरह के सुन्दर हास-परिहास से मुखरित हो रही है। पर, सब हो-हल्ला मुझे जहर जैसा लगने लगा। अकेला रास्ते-रास्ते घूमते हुए मैं यही सोचने लगा कि इस समस्या की मीमांसा होगी किस तरह? बर्मी लोगों में विवाह के सम्बन्ध में कोई बँधा हुआ नियम नहीं है। विवाह की कुलीन विधि भी है और पति-पत्नी की तरह जो स्त्री-पुरुष तीन दिन एक साथ रहकर एक बर्तन में भोजन कर लेते हैं, उनका भी विवाह हो गया समझा जाता है। न तो समाज ही इसे नामंजूर करती है और न वह स्त्री ही इस कारण किसी तरह हलकी नजर से देखी जाती है। परन्तु, 'बाबू' के लिए हिन्दू कानून में यह सब कुछ भी नहीं है। इस स्त्री को यह अपने देश में ले जाकर नहीं रख सकता। हिन्दू समाज उन्हें न हो तो न अपनावे, किन्तु, यह भी जीवन-भर सहन करते रहना कठिन है कि नीच से नीच आदमी भी उन्हें नीची निगाह से देखे! या तो चिरकाल के लिए निर्वासित की तरह प्रवास में रहा करे; या फिर, बड़े भइया ने अपने छोटे भाई की जो व्यवस्था की, वही ठीक है। इतना होते हुए भी 'धर्म' नामक शब्द का यदि कोई अर्थ हो सकता है- चाहे वह धर्म हिन्दू जाति का हो या और किसी जाति का, तो इतना बड़ा नृशंस व्यापार किस तरह ठीक हो सकता है सो समझना मेरी बुद्धि से परे की बात है। यह सब बातें तो समयानुसार और कभी सोचकर देखूँगा; किन्तु, इस गुस्से के मारे तो मैं जलकर खाक होने लगा, कि यह कापुरुष आज बिना किसी अपराध के इस अनन्य-निर्भर नारी के परम स्नेह के ऊपर वेदना का बोझा लादकर और चकमा देकर भाग गया।

रास्ते के किनारे-किनारे जो चलना शुरू किया तो चलता ही गया। बहुत दिन पहले, एक दिन अभया का पत्र पढ़ने जिस चाह की दुकान में गया था उसी दुकान के मालिक ने शायद पहिचान कर मुझे हाँक दी, “बाबू साहब, आइए।”

एकाएक जैसे नींद टूटते ही मैंने देखा, यह वही दुकान है और वह रोहिणी भइया का घर है। बिना कुछ कहे उसके बुलाने का मान रखकर मैं अन्दर चला गया और एक प्याला चाय पीकर बाहर निकला। रोहिणी के दरवाजे पर धक्का देकर देखा कि भीतर से बन्द है। बाहर की साँकल को पकड़कर दो-चार दफे हिलाते ही किवाड़ खुल गये। ऑंखें उठाकर देखा कि सामने अभया है।

“अरे तुम?”

अभया की ऑंखें और चेहरा लाल हो उठा; कोई भी जवाब दिए बगैर वह पलक मारते न मारते अपने कमरे में चली गयी और उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। किन्तु, लज्जा की जो मूर्ति शाम के उस धुँधले प्रकाश में उसके चेहरे पर फूट उठते देखी, उससे जानने-पूछने के लिए और कुछ बाकी ही नहीं रहा। अभिभूत की तरह कुछ देर खड़ा रहकर चुपचाप लौटकर जा रहा था कि अकस्मात् मेरे दोनों कानों में मानो दो तरह के विभिन्न रोने के स्वर एक ही साथ गूँज उठे; एक था उस महापापी का और दूसरा उस बर्मी युवती का। मैं जाना ही चाहता था, किन्तु, फिर लौटकर ऑंगन में खड़ा हो गया। मन ही मन कहा, नहीं, मुझे इस तरह नहीं जाना चाहिए। नहीं-नहीं- ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, यह उचित नहीं है, यह अच्छा नहीं है- यह सब अनेक दफे सुनने की आदत रही है, अनेक दफे दूसरों को सुनाया भी है-किन्तु बस, अब और नहीं। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्यों अच्छा है, कहाँ किस तरह बुरा है- ये सब प्रश्न यदि हो सकेगा तो स्वयं उसी के मुँह से सुनूँगा और यदि ऐसा न कर सकूँ, तो केवल पोथी के अक्षरों पर दृष्टि रखकर मीमांसा करने का अधिकार न मुझे है, न तुम्हें है और न शायद विधाता को ही है।

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